अब मतदाता सूचियों में विदेशी नामों का हौवा (आलेख : राजेंद्र शर्मा)


जिसकी आशंका थी, बिहार में मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के पीछे के असली खेल का पर्दे के पीछे से झांंकना शुरू हो गया है। यह शुरूआत हुई है इसके दावों के साथ कि मतदाता सूची पुनरीक्षण के क्रम में घर-घर जाने से मिल रही जानकारियों से पता चला है कि मतदाता सूची में बड़ी संख्या में नेपाली, बंगलादेशी और म्यांमार के लोगों के नाम हैं। बेशक, अभी तक ये कथित जानकारियां, चुनाव आयोग में मौजूद ‘सूत्रों’ से आ रही जानकारियों के तौर पर ही मीडिया में आयी हैं। चुनाव आयोग ने खुद औपचारिक रूप से न तो ऐसा कोई बयान दिया है और न ऐसा कोई दावा किया है। बहरहाल, ये खबरें जितने बड़े पैमाने पर और वास्तव में जिस तरह हर जगह ही मीडिया में आयी हैं, उससे साफ है कि यह दबी-छुपी जानकारी का मामला नहीं है, जिसे किन्हीं इक्का-दुक्का सूत्रों ने उजागर कर दिया हो और इस या उस मीडिया संस्थान के हाथ लग गयी हों। इसके विपरीत, यह ‘सूत्रों’ के नाम पर खुद चुनाव आयोग द्वारा बड़े पैमाने पर खबर प्लांट किए जाने का मामला है। यह किसी से छुपा नहीं है कि मोदी राज की अपारदर्शिता की आम कार्य संस्कृति में रच-बसकर चुनाव आयोग ने भी अपनी स्वतंत्र भूूमिका के अधिकतम पारदर्शिता के तकाजों को भुलाकर, मीडिया के जरिए जनता से और स्वयं सीधे राजनीतिक पार्टियों के साथ भी संवाद कम से कम कर दिया है। मोदी राज की तरह अब चुनाव आयोग भी संवाददाता सम्मेलन और चुनाव प्रक्रिया की मुख्य हितधारक, राजनीतिक पार्टियों के साथ बैठकें कम से कम करता है और ज्यादा से ज्यादा ‘सूत्रों’ के नाम पर खबरें प्लांट करने का सहारा लेता है। यही बड़ी संख्या में विदेशियों के नाम मतदाता सूचियों में होने के प्रचार के मामले में हो रहा है।



कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक जन-धारणा बनाने का और उसका अधिकतम प्रचार करने का ही खेल है। इस खेल में इस तरह का ‘सूत्रों’ के नाम पर किया जाने वाला प्रचार, खासतौर पर मददगार होता है, जिसे विश्वसनीय बनाने के लिए जिस संस्था के नाम पर इस्तेमाल किया जाता है, उस संस्था को मंडन या खंडन में से कुछ भी करने की जरूरत ही नहीं होती है और इस तरह वास्तव में वह मौन स्वीकृति से इस धारणा के बनने में मदद ही कर रही होती है। यह मदद महत्वपूर्ण रूप से इस अर्थ में भी की जा रही होती है कि इस खबर, जिसे वास्तव में अफवाह ही कहना चाहिए, की जांच के लिए सवालों के जवाब देने के लिए, उसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई होता ही नहीं है। मिसाल के तौर पर ‘मतदाता सूची में बड़ी संख्या में विदेशियों के नाम’ होने की इस धारणा के सिलसिले में, जिसको सत्ताधारी संघ-भाजपा से जुड़ा पूरा का पूरा प्रचार सिस्टम जोर-शोर से फैलाने में लगा हुआ है, न तो इसका कहीं कोई जवाब मिलेगा कि ये ‘बड़ी संख्या’ आखिरकार है कितनी और न ही इसका कोई जवाब मिलेगा कि घर-घर जाने के क्रम में अधिकारियों को यह जानकारी मिली कैसे? कथित रूप से घर-घर गए, निचले दर्जे के अधिकारियों ने, जिनमें ज्यादातर बीएलओ की भूमिका अदा कर रहे स्कूल अध्यापक ही हैं, कैसे जाना, किस तरह की जांच के जरिए जाना कि मतदाता सूची में शामिल अनेक नाम, वास्तव में विदेशियों के हैं?

दूसरी ओर, ‘सूत्रों’ के नाम पर फैलायी जा रही इन अफवाहों में आयोग के नाम पर ही यह अफवाह और जोड़ दी गयी है कि इन नामों को पक्की मतदाता सूची में से हटा दिया जाएगा। कैसे? इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है, हालांकि गोल-मोल तरीके से यह जरूर कहा जा रहा है कि ‘जांच के बाद’ नामों को हटा दिया जाएगा। लेकिन, जैसा कि बिहार में जारी पुनरीक्षण की प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट में दी गयी कानूनी चुनौतियों में बलपूर्वक रेखांकित किया गया है और अदालत भी जिससे सहमत नजर आयी है, नागरिकता की जांच करना चुनाव आयोग के दायरे में आता ही नहीं है। ऐसे में आयोग किसी भी रूप में नागरिकता की जांच को, मतदाताओं के नाम सूची में जोड़ने / हटाने का आधार बना ही नहीं सकता है। लेकिन, उद्देश्य उतना नाम हटाना नहीं है, जितना विदेशी घुसपैठ का हौवा खड़ा करना है।
इस खेल के दो मकसद तो आसानी से पहचाने भी जा सकते हैं। पहला तो यही कि जिस बात की शुरू से ही आशंका जतायी जा रही थी कि, मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की इस पूरी प्रक्रिया का ही मकसद मतदाता सूचियों की साफ-सफाई के नाम पर, इन सूचियों से वैध मतदाताओं की उल्लेखनीय संख्या को बाहर करना है, उसका इस तरह से औचित्य सिद्घ किया जा रहा होगा। और चूंकि इस पुनरीक्षण की पद्घति को इस तरह से ढाला गया कि यह ग्रामीण व शहरी गरीबों पर, कमजोर तबकों/ जाति के लोगों पर, कम पढ़े-लिखे लोगों पर, अल्पसंख़्यकों और महिलाओं पर ही सबसे ज्यादा चोट करेगी, जबकि संपन्न, शिक्षित, सवर्ण पर सबसे कम चोट करेगी, मतदाता सूचियों की यह ‘सफाई’, वस्तुगत रूप से सत्तापक्ष की मदद करेगी, जिसे वंचितों का अपेक्षाकृत कम और अधिकार-संपन्नों का अपेक्षाकृत अधिक समर्थन हासिल है। चुनाव आयोग की इस सब में इसलिए भी अतिरिक्त दिलचस्पी हो सकती है कि इस प्रक्रिया के अंत में उल्लेखनीय संख्या में मतदाताओं की छंटनी को, जो इस प्रक्रिया में ही निहित है, ‘विदेशियों’ की छंटनी के नाम पर न सिर्फ उचित ठहराया जा रहा होगा बल्कि आयोग मतदाता सूची पुनरीक्षण की अपनी पद्घति की खामियों का जवाब देने के बजाय, इतने नामों का छांटा जाना जिसका साक्ष्य है, कथित रूप से विदेशियों से देश की जनतांत्रिक व्यवस्था की रक्षा के लिए अपनी पीठ भी ठोक सकेगा। याद रहे कि मतदाता सूची में विदेशी नामों की ‘खबरों’ ने खासतौर पर तब जोर पकड़ा है, जब मुख्यधारा के मीडिया के सरकार की ही तरह चुनाव आयोग का भी भोंपू बनने के बावजूद, कई साहसी स्वतंत्र पत्रकारों ने किसी भी तरह तय समय सीमा में इस नामुमकिन पुनरीक्षण को मुमकिन कर दिखाने की हड़बड़ी में, चुनाव आयोग द्वारा जमीनी स्तर पर अपने ही बनाए तमाम नियम कायदों को उठाकर ताक पर ही रख देने की सच्चाई को उजागर कर दिया है। यह मतदाता सूचियों में भारी धांधली और मनमानी की स्थितियां बनाता है। इस तरह ध्यान बंटाने के हथकंडों के जरिए सवालों से बचना तो, वर्तमान शासकीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा ही बन चुका है।

दूसरा मकसद, और भी सीधा है। विदेशी घुसपैठ के खतरे का हौवा खड़ा करना, वर्तमान सत्ताधारियों के तरकश का एक प्रमुख तीर है। इस तीर की प्रमुखता का एक बड़ा आधार यह है कि ‘विदेशी’ को आसानी से ‘मुस्लिम’ का पर्याय बनाया जा सकता है और इस तरह ‘विदेशी घुसपैठ के खतरे’ को आसानी से मुस्लिमविरोध का हथियार बनाया जा सकता है। मोदी निजाम के 11 साल में ही और खासतौर पर 2024 के आम चुनाव के समय से ही, मुस्लिमविरोधी प्रचार में जो विशेष तेजी आयी है, उसमें आम चुनाव के नतीजों के बाद से वर्तमान सत्ताधारी ताकतें, मुस्लिम घुसपैठियों के हौवे को खासतौर पर हवा दे रही हैं। झारखंड के विधानसभाई चुनावों में तो बंगलादेशी घुसपैठ का मुद्दा उछालने की प्रधानमंत्री के स्तर तक से, हर संभव कोशिश की गयी थी, हालांकि झारखंड की जनता ने इसे खारिज कर दिया। अब बिहार के चुनाव के लिए और उससे भी आगे, अगले साल के शुरू में होने वाले असम तथा पश्चिम बंगाल के विधानसभाई चुनाव लिए खासतौर पर, बंगलादेशी घुसपैठ के भूत को नचाने की कोशिशें की जा रही हैं। वैसे इस खेल की व्याप्ति सार्वदेशिक है। इसीलिए, पिछले कुछ महीनों में राजधानी दिल्ली से लेकर मुंबई तक और ओडिशा समेत देश के दूसरे कई हिस्सों में कथित घुसपैठियों की पकड़-धकड़ के नाम पर, बंगला भाषा बोलने वाले मुसलमानों को खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा है।

इसी दौरान, पुन: सूत्रों के ही हवाले से, इसकी खबरें भी आनी शुरू हो चुकी हैं कि चुनाव आयोग ने देश के पैमाने पर, बिहार जैसे ही विशेष गहन पुनरीक्षण के लिए कदम उठाने की शुरूआत कर दी है। स्वाभाविक रूप से विपक्षी पार्टियों ने चुनाव आयोग की इस जल्दबाजी की आलोचना की है और कहा है कि उसे इस प्रक्रिया के लिए सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन चुनौतियों के फैसले का इंतजार करना चाहिए था। 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में इन याचिकाओं के सुने जाने की संभावना है। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के सामने बिहार के विशेष गहन पुनरीक्षण की समय-सूची का मुद्दा ही विचाराधीन नहीं है, बल्कि इसके लिए अपनायी गयी प्रक्रिया और अधिकार क्षेत्र के मुद्दे भी विचाराधीन हैं, जो इसके अखिल भारतीय प्रयास के संदर्भ में प्रासंगिक हैं। यही नहीं, जैसा कि पूर्व-चुनाव आयुक्त लवासा ने अपने एक लेख में ध्यान दिलाया है — 2003 की मतदाता सूची को आधार बनाकर, सभी मतदाताओं का दो श्रेणियों में विभाजन और इसी प्रकार, जन्म तिथियों के आधार पर मतदाताओं का श्रेणी विभाजन भी, आसानी से अदालत को हजम होने वाला नहीं है।

Hasdeo Pravah

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