

छत्तीसगढ़ की धरती ऋषि-मुनियों, तपस्वियों और संत महात्माओं की साधना भूमि रही है। यहाँ की लोकसंस्कृति में गुरु को ईश्वर से भी ऊपर स्थान दिया गया है। गुरु पूर्णिमा का पर्व न केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा है, बल्कि यह जीवन के उन मार्गदर्शकों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर है जिन्होंने हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का कार्य किया।
गुरु पूर्णिमा का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
गुरु पूर्णिमा का पर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह दिन महर्षि वेदव्यास की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है, जिन्होंने वेदों का संकलन, महाभारत की रचना और पुराणों की रचना कर मानव समाज को ज्ञान की अमूल्य धरोहर सौंपी।
छत्तीसगढ़ में गुरु परंपरा की जीवंत मिसालें
छत्तीसगढ़ की जनजातीय और ग्रामीण संस्कृति में गुरु शिष्य परंपरा अत्यंत गहरी है। बाईस गुरु परंपरा, सतनाम पंथ के गुरु घासीदास, संत कबीर के अनुयायी, और गुरु बालकदास जैसे महात्माओं की शिक्षाएं आज भी जनमानस में जीवित हैं।
गुरु घासीदास जी ने “सत्य, अहिंसा और समानता” का संदेश दिया। उन्होंने समाज में व्याप्त ऊंच-नीच और जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाई।
सतनामी समाज में गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व होता है, जहाँ शिष्यों द्वारा गुरु के चरणों में भक्ति भाव से अर्पण किया जाता है।
लोकनृत्य और गीतों में भी गुरु की महिमा गाई जाती है, जैसे पंथी नृत्य में “गुरु बिना ज्ञान नहीं रे…”
विद्यालयों और गुरुकुलों में उत्सव का रूप
राज्य के ग्रामीण स्कूलों, आश्रम शालाओं और संस्कृत महाविद्यालयों में इस दिन विशेष आयोजन होते हैं। छात्र अपने शिक्षकों को तिलक कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। पूजा, भजन, व्याख्यान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से गुरु के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है।
गुरु: केवल शिक्षक नहीं, जीवनदृष्टा
छत्तीसगढ़ की माटी में ‘गुरु’ केवल स्कूल के शिक्षक नहीं हैं, बल्कि वह बुजुर्ग किसान हो सकते हैं, जो खेत की बारीकियाँ सिखाते हैं, वह लोककला सिखाने वाले कलाकार हो सकते हैं, या वह जनजातीय समाज के अगुवा जो परंपराओं को आगे बढ़ाते हैं। यहाँ ज्ञान की हर शाखा में गुरु का स्थान सर्वोपरी है।
आज की पीढ़ी और गुरु पूर्णिमा
बदलते समय में भी गुरु पूर्णिमा का महत्व कम नहीं हुआ है। डिजिटल युग में भी छात्र अपने शिक्षकों को स्नेहपूर्वक शुभकामनाएं भेजते हैं, ऑनलाइन सेमिनार और वेबिनार के माध्यम से गुरुओं के योगदान को सम्मानित किया जाता है।
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निष्कर्ष
गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि हमारी संस्कारशील परंपरा का प्रतीक है। छत्तीसगढ़ जैसे सांस्कृतिक प्रदेश में यह दिन गुरु के प्रति समर्पण, आभार और आत्मिक जुड़ाव की भावना को और भी पावन बना देता है।
गुरु ही वह दीपक हैं जो अज्ञानता के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय॥”